हज़रात जहरा की मुख़्तसर जीवनी
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं
नाम व अलक़ाब (उपाधियां)
आप का नाम फ़ातिमा व आपकी उपाधियां ज़हरा ,सिद्दीक़ा, ताहिरा, ज़ाकिरा, राज़िया,
मरज़िया,मुहद्देसा व बतूल हैं।
माता पिता
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी
माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद हैं। हज़रत ख़दीजा वह स्त्री
हैं,जिन्होने सर्व- प्रथम इस्लाम को स्वीकार किया। आप अरब की एक धनी महिला थीं तथा
आप का व्यापार पूरे अरब मे फैला हुआ था। आपने विवाह उपरान्त अपनी समस्त सम्पत्ति
इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को दे दी थी। तथा स्वंय साधारण जीवन व्यतीत करती थीं।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
अधिकाँश इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि हज़रत फातिमा ज़हरा का जन्म मक्का नामक
शहर मे जमादियुस्सानी (अरबी वर्ष का छटा मास) मास की 20 वी तारीख को बेसत के पांचवे
वर्ष हुआ। कुछ इतिहास कारों ने आपके जन्म को बेसत के दूसरे व तीसरे वर्ष मे भी लिखा
है।एक सुन्नी इतिहासकार ने आपके जन्म को बेसत के पहले वर्ष मे लिखा है।
पालन पोषन
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का पालन पोषन स्वंय पैगम्बर की देख रेख मे घर मे ही हुआ। आप का पालन
पोषन उस गरिमा मय घर मे हुआ जहाँ पर अल्लाह का संदेश आता था। जहाँ पर कुऑन उतरा
जहाँ पर सर्वप्रथम एक समुदाय ने एकईश्वरवाद मे अपना विश्वास प्रकट किया तथा
मरते समय तक अपनी आस्था मे दृढ रहे। जहाँ से अल्लाहो अकबर (अर्थात अल्लाह महान है)
की अवाज़ उठ कर पूरे संसार मे फैल गई। केवल हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा वह बालिका थीं जिन्होंने
एकईश्वरवाद के उद्दघोष के उत्साह को इतने समीप से देखा था। पैगम्बर ने हज़रत
फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा
को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि उनके अन्दर मानवता के समस्त गुण विकसित हो गये।
तथा आगे चलकर वह एक आदर्श नारी बनीं।
विवाह
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का विवाह 9 वर्ष की आयु मे हज़रत अली
अलैहिस्सलाम के साथ हुआ। वह विवाह
उपरान्त 9 वर्षों तक जीवित रहीं। उन्होने चार बच्चों को जन्म दिया जिनमे दो लड़के
तथा दो लड़कियां थीं। जिन के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। पुत्रगण (1) हज़रत
इमाम हसन (अ0) (2) हज़रत इमाम हुसैन (अ0)। पुत्रीयां (3) हज़रत
ज़ैनब (4) हज़रत उम्मे कुलसूम। आपकी पाँचवी सन्तान गर्भावस्था मे ही
स्वर्गवासी हो गयी थी। वह एक पुत्र थे तथा उनका नाम मुहसिन रखा गया था।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का ज्ञान
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के ज्ञान का स्रोत वही ज्ञान व मर्म है, जो आप के पिता को अल्लाह
से प्राप्त हुआ था। हज़रत पैगम्बर अपनी पुत्री फ़तिमा के लिए उस समस्त ज्ञान का
व्याख्यान करते थे। हज़रत अली उन व्याख्यानों को लिखते व हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह
अलैहा उन सब
लेखों को एकत्रित करती रहती थीं। इन एकत्रित लेखों ने बाद मे एक पुस्तक का रूप धारण
कर लिया। आगे चलकर यह पुस्तक मुसहफ़े फ़ातिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का शिक्षण कार्य
हज़रत फ़तिमा स्त्रीयों को कुऑन व धार्मिक निर्देशों की शिक्षा देती व उनको उनके
कर्तव्यों के प्रति सजग करती रहती थीं। आप की मुख्यः शिष्या का नाम फ़िज़्ज़ा था जो गृह
कार्यों मे आप की साहयता भी करती थी। वह कुऑन के ज्ञान मे इतनी निःपुण हो गयी थी
कि उसको जो बात भी करनी होती वह कुऑन की आयतों के द्वारा करती थी। हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा दूसरों को शिक्षा देने से कभी नही थकती थीं तथा सदैव अपनी शिष्याओं का
धैर्य बंधाती रहती थी।
एक दिन की घटना है कि एक स्त्री ने आपकी सेवा मे उपस्थित हो कर कहा कि मेरी माता
बहुत बूढी है और उसकी नमाज़ सही नही है। उसने मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आप से इस
बारे मे प्रश्न करू ताकि उसकी नमाज़ सही हो जाये। आपने उसके प्रश्नो का उत्तर दिया
और वह लौट गई। वह फिर आई तथा फिर अपने प्रश्नों का उत्तर लेकर लौट गई। इसी प्रकार उस
को दस बार आना पड़ा और आपने दस की दस बार उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह स्त्री
बार बार आने जाने से बहुत लज्जित हुई तथा कहा कि मैं अब आप को अधिक कष्ट नही दूँगी।
आप ने कहा कि तुम बार बार आओ व अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करो । मैं अधिक
प्रश्न पूछने से क्रोधित नही होती हूँ। क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है
कि" कियामत के दिन हमारा अनुसरण करने वाले ज्ञानी लोगों को उनके ज्ञान के अनुरूप
मूल्यवान वस्त्र दिये जायेंगे। तथा उनका बदला (प्रतिकार) मनुष्यों को अल्लाह की ओर
बुलाने के लिए किये गये प्रयासों के अनुसार होगा।"
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर
इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आजाती थी। सन् 110 हिजरी मे मृत्यु
पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।"
पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है। जब वह गृह कार्यों
को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पूर्वज इमाम हसन जो कि हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा के बड़े पुत्र हैं
उनके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि "हमारी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा बृहस्पतिवार व
शुक्रवार के मध्य की रात्री को प्रथम चरण से लेकर अन्तिम चरण तक इबादत करती थीं।
तथा जब दुआ के लिए हाथों को उठाती तो समस्त आस्तिक नर नारियों के लिए अल्लाह से दया
की प्रार्थना करतीं परन्तु अपने लिए कोई दुआ नही करती थीं। एक बार मैंने कहा कि
माता जी आप दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ करती हैं अपने लिए दुआ क्यों नही करती? उन्होंने उत्तर दिया कि प्रियः पुत्र सदैव अपने पड़ोसियों को अपने ऊपर वरीयता
देनी चाहिये।"
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक जाप किया करती थीं जिसमे (34) बार अल्लाहु अकबर (33) बार
अलहम्दो लिल्लाह तथा (33) बार सुबहानल्लाह कहती थीं। आपका यह जाप इस्लामिक समुदाय
मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की तस्बीह के नाम से प्रसिद्ध है। तथा शिया व सुन्नी दोनो
समुदायों के व्यक्ति इस तस्बीह को नमाज़ के बाद पढ़ते हैं।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का धर्म युद्धों मे योगदान
इतिहास ने हज़रत पैगम्बर के दस वर्षीय शासन के अन्तर्गत आपके 28 धर्म युद्धों तथा
35 से लेकर 90 तक की संख्या मे सरिय्यों का उल्लेख किया है। (पैगम्बर के जीवन
मे सरिय्या उन युद्धों को कहा जाता था जिन मे पैगम्बर स्वंय सम्मिलित नही होते थे।)
जब इस्लामी सेना किसी युद्ध पर जाती तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा इस्लामी सेनानियों के परिवार
की साहयता के लिए जाती व उनका धैर्य बंधाती थीं। वह कभी कभी स्त्रीयों को इस कार्य
के लिए उत्साहित करती कि युद्ध भूमी मे जाकर घायलों की मरहम पट्टि करें। परन्तु
केवल उन सैनिकों की जो उनके महरम हों। महरम अर्थात वह व्यक्ति जिनसे विवाह करना
हराम हो।
ओहद नामक युद्ध मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अन्य स्त्रीयों के साथ युद्ध भूमि मे गईं इस
युद्ध मे आपके पिता व पति दोनो बहुत घायल होगये थे। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने पिता के
चेहरे से खून धोया। तथा जब यह देखा कि खून बंद नही हो रहा है तो हरीर(रेशम) के एक टुकड़े
को जला कर उस की राख को घाव पर डाला ताकि खून बंद हो जाये। उस दिन हज़रत अली ने
अपनी तलवार धोने के लिए हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को दी। इस युद्ध मे हज़रत पैगम्बर के चचा
श्री हमज़ा शहीद हो गये थे। युद्ध के बाद श्री हमज़ा की बहन हज़रत सफ़िहा हज़रत
फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के साथ अपने भाई की क्षत विक्षत लाश पर आईं तथा रोने लगीं।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा भी रोईं तथा पैगम्बर भी रोयें।और अपने चचा के पार्थिव शरीर से कहा कि अभी
तक आप की मृत्यु के समान कोई मुसीबत मुझ पर नही पड़ी। इसके बाद हज़रत फ़तिमा व सफ़िहा
से कहा कि अभी अभी मुझे अल्लाह का संदेश मिला है कि सातों आकाशों मे हमज़ा शेरे
खुदा व शेरे रसूले खुदा है। इस युद्ध के बाद हज़रत फातिमा जब तक जीवित रहीं हर
दूसरे या तीसरे दिन ओहद मे शहीद होने वाले सैनिकों की समाधि पर अवश्य जाया
करती थीं।
ख़न्दक नामक युद्ध मे हज़रत फ़तिमा अपने पिता के लिए रोटियां बनाकर ले गयीं
जब पैगम्बर ने प्रश्न किया कि यह क्या है? तो आपने उत्तर दिया कि आपके न होने के
कारण दिल बहुत चिंतित था अतः यह रोटियां लेकर आपकी सेवा मे आगई। पैगम्बर ने कहा कि
तीन दिन के बाद मैं यह पहला भोजन अपने मुख मे रख रहा हूँ।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक आदर्श पुत्री,पत्नि, व माता के रूप मे
आदर्श पुत्री
आदर्श पत्नि
आदर्श माता
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा व पैगम्बर के जीवन के अन्तिम क्षण
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के गले की माला
शहादत(स्वर्गवास)
आप अपने पिता के बाद केवल 90 दिन जीवित रहीं। हज़रत पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद
जो अत्याचार आप पर हुए आप उनको सहन न कर सकीं तथा स्वर्गवासी हो गईं। इतिहासकारों
ने उल्लेख किया है कि जब आप के घर को आग लगायी गई, उस समय आप द्वार के पीछे खड़ी
हुई थीं। जब किवाड़ों को धक्का देकर शत्रुओं ने घर मे प्रवेश किया तो उस समय आप दर
व दीवार के मध्य भिच गयीं। जिस कारण आपके सीने की पसलियां टूट गयीं, व आपका
वह बेटा भी स्वर्गवासी हो गया जो अभी जन्म भी नही ले पाया था। जिनका नाम गर्भावस्था
मे ही मोहसिन रख दिया गया था।
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